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परा॑व॒तं ना॑सत्यानुदेथामु॒च्चाबु॑ध्नं चक्रथुर्जि॒ह्मवा॑रम्। क्षर॒न्नापो॒ न पा॒यना॑य रा॒ये स॒हस्रा॑य॒ तृष्य॑ते॒ गोत॑मस्य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parāvataṁ nāsatyānudethām uccābudhnaṁ cakrathur jihmabāram | kṣarann āpo na pāyanāya rāye sahasrāya tṛṣyate gotamasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परा॑। अ॒व॒तम्। ना॒स॒त्या॒। अ॒नु॒दे॒था॒म्। उ॒च्चाऽबु॑ध्नम्। च॒क्र॒थुः॒। जि॒ह्मऽवा॑रम्। क्षर॑न्। आपः॑। न। पा॒यना॑य। रा॒ये। स॒हस्रा॑य। तृष्य॑ते। गोत॑मस्य ॥ १.११६.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) आग और पवन के समान वर्त्तमान सभापति और सेनाधिपति ! तुम दोनों (जिह्मवारम्) जिसको टेढ़ी लगन और (उच्चाबुध्नम्) उससे जिसमें ऊँचा अन्तरिक्ष अर्थात् अवकाश उस रथ आदि को (अवतम्) रक्खो और अनेक कामों की सिद्धि (चक्रथुः) करो और उसको यथायोग्य व्यवहार में (परा, अनुदेथाम्) लगाओ। जो (गोतमस्य) अतीव स्तुति करनेवाले के रथ आदि पर (तृष्यते) प्यासे के लिये (पायनाय) पीने को (आपः) भाफरूप जल जैसे (क्षरन्) गिरते हैं (न) वैसे (सहस्राय) असंख्यात (राये) धन के लिये अर्थात् धन देने के लिये प्रसिद्ध होता है वैसे रथ आदि को बनाओ ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। शिल्पी लोगों को विमानादि यानों में जिसमें बहुत मीठे जल की धार मावे ऐसे कुण्ड को बना, आग से उस विमान आदि यान को चला, उसमें सामग्री को धर, एक देश से दूसरे देश को जाय और असंख्यात धन पाय के परोपकार का सेवन करना चाहिये ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अग्निवायुवद्वर्त्तमानौ नासत्याऽश्विनौ युवां जिह्मवारमुच्चाबुध्नमवतमनेन कार्य्यसिद्धिं चक्रथुः कुरुतम्। तं पराऽनुदेथां यो गोतमस्य याने तृष्यते पायनायापः क्षरन्नेव सहस्राय राये जायेत तादृशं निर्मिमाथाम् ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परा) (अवतम्) रक्षतम् (नासत्या) अग्निवायू इव वर्त्तमानौ (अनुदेथाम्) प्रेरयेथाम् (उच्चाबुध्नम्) उच्चा ऊर्द्ध्वं बुध्नमन्तरिक्षं यस्मिँस्तम् (चक्रथुः) कुरुतम् (जिह्मवारम्) जिह्मं कुटिलं वारो वरणं यस्य तम् (क्षरन्) क्षरन्ति (आपः) वाष्परूपाणि जलानि (न) इव (पायनाय) पानाय (राये) धनाय (सहस्राय) असंख्याताय (तृष्यते) तृषिताय (गोतमस्य) अतिशयेन गौः स्तोता गोतमस्तस्य ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। शिल्पिभिर्विमानादियानेषु पुष्कलमधुरोदकाधारं कुण्डं निर्मायाग्निना संचाल्य तत्र संभारान् धृत्वा देशान्तरं गत्वाऽसंख्यातं धनं प्राप्य परोपकारः सेवनीयः ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. कारागिरांनी विमान इत्यादी यानात मधुर जलाची धार मावेल असे कुंड बनवून अग्नीद्वारे त्या विमान इत्यादी यानाला चालवून त्यात सामान ठेवून एका स्थानाहून दुसऱ्या स्थानी जावे व असंख्य धन प्राप्त करून परोपकार करावा. ॥ ९ ॥